हम अक्सर जन संघर्षों में गाते है - ‘‘जयपुर की सरकार तू बोले क्यूं नी रे,
बोले क्यूं नी रे, मुण्डो खोले क्यूं नी रे।’’ मतलब यह कि जयपुर की सरकार
तू बोलती क्यों नहीं है और अपना मुंह खोलती क्यों नहीं है? शायद इसलिए कि
राजस्थान की सरकार गूंगी सरकार है, लेकिन आरसीएम उपभोक्ता एवं वितरक कल्याण
संघ के बैनर तले चल रहे प्रचण्ड जन अभियान की मांगों को अनसुना कर रही
केंद्र की यूपीए सरकार से पूछने का मन करता है कि दिल्ली की सरकार, तू
सुनती क्यों नहीं रे?
संपूर्ण स्वदेशी उत्पाद बेचने वाली शुद्ध भारतीय व्यापारिक कंपनी आरसीएम पर
की गई अवैधानिक कार्यवाही के बाद कंपनी को बंद हुए आज 105 दिन हो चुके।
दिसंबर 2011 से पुलिस के तुगलकी रवैये, हठधर्मिता और अपने अघोषित व कथित
अज्ञात आकाओं के ईशारों पर उसने आरसीएम वल्र्ड पर चढ़ाई की, कार्यवाही की,
उसे सीज किया और सर्वर तथा संपूर्ण वितरण व्यवस्था को ठप्प करने का बेहद
नासमझी भरा कदम उठाया, खैर, वह मामला अब जेरे अदालत है, मगर आरसीएम से
जुड़े 1 करोड़ 33 लाख लोग इस हिटलरी पुलिसिया कार्यवाही से पीडि़त होकर
बेरोजगार हो चुके है, यह अत्यंत चिंता का विषय है।
करोड़ों लोगों के रोजगार के सवाल को आरसीएम उपभोक्ता एवं कल्याण संघ ने
बड़ी शिद्दत से उठाया है। भीलवाड़ा पुलिस की कार्यवाही के विरुद्ध निहायत
ही गांधीवादी तरीके से 12 दिसंबर को भीलवाड़ा शहर की सड़कों पर हजारों
लोगों ने शांतिपूर्ण मौन जुलूस निकाला। भीलवाड़ा की सड़कें इनके अनुशासित
गांधीवादी संघर्ष के शुरूआत की साक्षी है। तब से अब तक आरसीएम के लाखों
हमदर्दों ने कहीं भी कोई हिंसक गतिविधि या अभद्रता नहीं की, जिस महात्मा
गांधी का नाम राजस्थान की सरकार और केंद्र की यूपीए सरकार लेते नहीं अघाती
है, उसी गांधी के आर्दशों का अनुकरण कर रहे है ये भले लोग, मगर जयपुर से
लेकर दिल्ली तक बैठी गूंगी, बहरी सरकार इस मामले पर न तो कुछ बोलती है और न
ही सुनती है।
अब तक आरसीएम से जुड़े लोग कई बार मुख्यमंत्री सहित कई मंत्रियों, सांसदों
से मिल चुके, उन्हें ज्ञापन सौंपे है, देश भर से सौंपे गए ज्ञापनों, धरनों,
प्रदर्शनों व शांतिपूर्ण रैलियों की संख्या तो हजारों को पार कर चुकी है।
मगर शांतिपूर्ण, अहिंसक, गांधीवादी तरीकों की कद्र करना इन कथित सत्ताधारी
गांधीवादियों के वश की बात नहीं रही है। जैसा कि हम जानते है कि लोगों का
आंदोलन विभिन्न राज्यों के नगरों, महानगरों व राजधानियों में होता हुआ
दिल्ली के रामलीला मैदान होते हुए जंतर-मंतर पहुंच चुका है। हजारों लोगों
ने 16 मार्च से देश की राजधानी में डेरा डाल रखा है, पहले इन निहत्थे
अहिंसक शांतिपूर्ण गांधीवादी तरीके से आंदोलन करने के अभिलाषी लोगों को
रामलीला मैदान में प्रदर्शन की अनुमति दी गई, फिर यकायक वापस ले ली गई। यह
समझना जरा मुश्किल है कि सरकारें अपने नागरिकों के शांतिपूर्ण विरोध करने
के अधिकारों का इस प्रकार कैसे हनन कर सकती है? मगर, खुलेआम कर रही है।
जिन सत्ताओं के जन विरोधी तरीकों के विरुद्ध नागरिक प्रदर्शन करना चाहते है
उन्हें सत्ता विरोधी अथवा व्यवस्था विरोधी धरना प्रदर्शनों की इजाजत सरकार
से लेनी पड़े तो इसे इस युग की विडंबना ही कहा जाना चाहिए, कितने लोग
आएंगे? कहां से आएंगे? क्या नारे लगाएंगे? भाषण कौन देंगे? क्या देंगे?
रैली कहां से कहां तक जाएगी? यह सब बातें सत्ता-व्यवस्था तय करने लगी है,
इसे मैं व्यक्ति की आजादी और हमारे नागरिक अधिकारों पर सत्ता का हमला मानता
हूं और इसीलिए आरसीएम के लोगों को पहले अनुमति देना और फिर उसे वापस लेने
को लोकतंत्र में असहमति की आवाजों का गला घोंटने का कृत्य ही कहा जाएगा।
ऐसी सरकारी नादिरशाही की निंदा की जानी चाहिए।
सत्ता कितनी निर्मम और निरंकुश होती है, यह आप बेहतर जान गए होंगे। क्योंकि
आप में से सैकड़ों लोग अनशन पर है और कहीं कोई सुनवाई नहीं की जा रही है
तो इसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। कल्याणकारी और
समाजवादी राष्ट्र राज्य होने का दावा करने वाले भारत गणराज्य की आम आदमी के
साथ होने का भ्रम फैला रही सरकार क्या आप लोगों का साथ दे रही है?
मैंने आपके अनुशासित प्रदर्शनों के चित्र देखे है जिसमें ‘हम हो गए
बेरोजगार-सरकार है जिम्मेदार’ लिखा है अथवा ‘आरसीएम वितरण व्यवस्था बहाल
करो’ या ‘एमएलएम कानून बनाओ’ की जायज मांगे आप द्वारा की जा रही है।
जिन्हें देशभर के जिम्मेदार जन प्रतिनिधियों का खुला समर्थन मिला है। मेरा
समर्थन पहले दिन से आपके साथ रहा है और भविष्य में भी जारी रहेगा।
आपकी आवाज आज आपके संघर्ष की बदौलत जंतर-मंतर की सड़क से लेकर देश की संसद
तक में गूंज रही है। मैंने बीकानेर के माननीय सांसद अर्जुन मेघवाल, भाजपा
प्रवक्ता शहनवाज हुसैन और नर्बदा बचाओ आंदोलन की अगुवा, प्रणेता व भारत में
जन संघर्षों की जुझारू प्रतीक बन गई मेधा पाटकर का जंतर-मंतर पर आपको दिया
संबोधन सुना। उन्होंने और उनके अलावा 36 और सांसदों ने आपकी वाजिब मांगों
का समर्थन किया है, यह शुभ शुरूआत है। हालांकि जो सरकारें पांच मिनट में
बिना किसी बहस के विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) जैसे कितने ही कायदे पारित कर
देती है, वह सरकार हजारों प्रदर्शनकारियों व सैकड़ों अनशनकारियों की मांग
पर ध्यान तक नहीं दे रही है क्योंकि उसका ध्यान तो रिटेल में एफडीआई लाने
के दुराग्रह पर स्थिर है। देश की जनता जो चाहती है, सत्ता वह नहीं करती है,
जनता कालाधन वापस लाने की मांग कर रही है, सरकार उस पर श्वेत पत्र लाने की
बात कर रही है? मैं पूछता हूं श्वेत पत्र ही लाओगे या कालाधन भी लाओगे? आप
लोगों ने अर्द्धनग्न होकर रामलीला मैदान के बाहर एमसीडी के फुटपाथों पर
प्रदर्शन करने का साहसिक कार्य भी किया है मगर मुझे लगता है कि जिस सत्ता
के समक्ष आप अर्द्धनग्न प्रदर्शन कर रहे हो, वह सत्ता संपूर्ण नंगी हो चुकी
है। बहरी हो चुकी है, गूंगी हो चुकी है और जनविरोधी हो चुकी है।
लेकिन फिर भी हम तो यह मानते है कि ‘सरकार हमारे आपकी-नहीं किसी के बाप की’
इसलिए उससे नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं है, जनतंत्र में जनता मालिक होती
है और सरकारें मुनीम तथा ब्यूरोक्रेसी नौकर। इसलिए लगे रहना पड़ता है,
एमएलएम का कानून लाने के लिए लगातार प्रयास करना पड़ेगा, तभी कामयाबी हासिल
होगी।
जो लोग आज यह कहकर पल्ला झाड़ रहे है कि हम क्या करे? कानून अपना काम कर
रहा है, उनसे हमारा यही कहना है कि इस मामले में तो आपके मुल्क में कोई
कानून ही नहीं है, जिस कानून के तहत कार्यवाही हो रही है, वह जब बनाया गया
था तब तो कानून निर्माताओं को प्रत्यक्ष व्यापार प्रणाली की समझ ही नहीं
थी, यह पूरी प्रक्रिया तो चली ही नब्बे के दशक से है, तब ये ही मनमोहन
सिंह, नरसिम्हराव सरकार में वित्तमंत्री हुआ करते थे, उस वक्त इन्होंने ही
आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के लिए इस देश के दरवाजे,
खिड़कियां और छतें तक खोल दी थी, उसी जागतीकरण का नतीजा है प्रत्यक्ष
व्यापार की प्रणाली। जब विदेशी पूंजी से लेकर विदेशी आकाओं के इशारे तक
हमारी केंद्र सरकार मान रही है तब उसे तकरीबन 5 करोड़ लोगों को रोजगार
मुहैय्या करवाने वाली प्रत्यक्ष व्यापारिक प्रणाली को स्वीकारने में कैसी
दिक्कत है? फिर यह भी गंभीर सवाल है कि जब विदेशी ‘एम वे’ चल सकती है, देशी
‘एनमार्ट’ जायज है तो ‘आरसीएम’ गलत कैसे है? किनके इशारों पर नष्ट करने पर
तुले हो? क्यों एक संपूर्ण स्वदेशी, शुद्ध भारतीय रिटेल श्रृंखला को
समाप्त कर रहे हो? यह ऐसा सवाल है जो राजस्थान की सरकार से लेकर केंद्र की
सत्ता के गलियारों में गुंजायमान है जिसका जवाब उन्हें देना ही पड़ेगा।
जितने साथी जंतर-मंतर पर इस जंग को लड़ रहे है उनके संघर्ष के जज्बे को मैं
सलाम करता हूं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि जंतर-मंतर की सड़क पर आपके
समर्थन में बैठू, लेकिन 14 अप्रेल तक पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों की
व्यस्तताओं के चलते फिलहाल राजस्थान के सुदूर अंचल के गांव, खेड़ों व
ढाणियों में विचरण कर रहा हूं मगर आपके संघर्ष में मैं सहभागी हूं और आपकी
जीत की शुभकामनाएं देता हूं। बस अपनी आवाज को और बुलंद करिए और बोलिए,
‘‘कहिए अपनी बात-मजबूती के साथ’’।
सुप्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज कहते है -
बोल, कि थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्म ओ जबां की मौत से पहले
बोल, कि सच जिंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है, कह ले
बोल, कि लब आजाद है तेरे...।
पुनः आपके संघर्ष को सलाम! ‘‘वी शैल फाइट - वी शैल विन’’ लड़ेंगे -जीतेंगे।
- भंवर मेघवंशी
(लेखक - khabarkosh.com के संपादक है और राजस्थान के सुदूर ग्रामीण अंचल में मानव अधिकार के मुद्दों पर कार्यरत है।
उनसे bhanwarmeghwanshi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
AAP GREAT HO...BHAWAR JI....AAP KO KOUTI KOUTI PRANAM.....
ReplyDelete(SALAMUDDIN AHMED)